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तरस  : पुं० [सं०√त्रस्-डरना] अभागे, दंडित, दुःखी या पीड़ित के प्रति मन में उत्पन्न होनेवाली करुणा या दया। क्रि० प्र०–आना। मुहावरा–(किसी पर) तरस खाना=किसी के प्रति करुणा या दया दिखलाना और फलतः उसका कष्ट या दुःख दूर करने का प्रयत्न करना।
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तरसान  : अ० [सं० तर्षण] अभीष्ट तथा प्रिय वस्तु के अभाव के कारण दुःखी या निराश व्यक्ति का उसके दर्शन या प्राप्ति के लिए लालायित या विकल होना। जैसे–(क) किसी को मिलने के लिए अथवा कुछ खाने के लिए मन तरसना। (ख) प्रिय को मिलने के लिए आँखें तरसना [सं० त्रसन] त्रस्त या पीड़ित होना। स० त्रस्त या पीड़ित करना।
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तरसान  : पुं० [सं०] नौका।
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तरसाना  : स० [हिं० तरसना का प्रे०] १. ऐसा काम करना जिससे कोई तरसे। २. किसी प्रकार के अभाव का अनुभव कराते हुए किसी को ललचाना। आसा दिलाकर या प्रवृत्ति उत्पन्न करके खिन्न या दुःखी करना। संयो० क्रि०–डालना।–मारना।
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तरसौंहाँ  : वि० [हिं० तरसना+औहाँ (प्रत्यय)] [स्त्री० तरसौंही] जो तरस रहा हो। तरसनेवाला। जैसे–तरसौंहें नेत्र।
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तरस्  : पुं० [सं०√तृ (तरना)+असुन्] १. बल। शक्ति। २. तेजी। वेग। ३. बीमारी। रोग। ४. तट। किनारा। ५. वानर। बन्दर।
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तरस्वान्(स्वत्)  : वि० [सं० तरस+मतुप्] १. जिसकी गति बहुत अधिक या तीव्र हो। २. वीर। बहादुर। साहसी। पुं० १. वायु। २. गरुड़। ३. शिव।
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तरस्वी(स्विन्)  : वि० [सं० तरस+विनि]=तरस्वान्।
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