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शब्द का अर्थ

तद्  : वि० [सं०√तन् (फैलना)+क्विप्] वह। क्रि० वि० [सं० तदा] उस समय। तब। (पश्चिम)।
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तद्गत  : वि० [सं० द्वि० त०] १. उससे संबंध रखनेवाला। उसके संबंध का। २. उसमें अन्तर्युक्त या व्याप्त।
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तद्देशीय  : वि० [सं० तद्देश, कर्म० स०+छ-ईय] उस देश का।
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तद्धन  : पुं० [सं० ब० स०] कंजूस। कृपण।
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तद्धर्म(न्)  : वि० [सं० ब० स०] उस धर्म का।
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तद्धित  : पुं० [सं० च० त०] १. व्याकरण में, वे प्रत्यय जो विशेषण शब्दों में लगकर उन्हें संज्ञाएँ और संज्ञाओं में लगकर उन्हें विशेषण का रूप देते है। २. उक्त प्रकार के प्रत्यय लगने से बननेवाले शब्द रूप या उनके रूप।
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तद्बल  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का बाण।
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तद्भव  : पुं० [सं० ब० स०] किसी भाषा में चलानेवाला वह शब्द जो किसी दूसरी भाषा के किसी शब्द का विकृत रूप हो। जैसे–काम सं० के ‘कर्म्म’ शब्द का तद्भव है।
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तद्यपि  : अव्य,० [सं० तदापि] तथापि।
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तद्रप  : वि० [सं० ब० स०] [भाव० तद्रूपता] उसी के रूप का। वैसा ही। पुं० साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें उपमेय को उपमान से पृथक् मानते हुए भी उसे उपमान का दूसरा रूप और उसके कार्य का कर्ता बतलाया जाता है।
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तद्रूत्  : वि० [सं० तद्+वति०] उसके समान। उसी के जैसा। अव्य० उसी की तरह।
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तद्रूपता  : स्त्री० [सं० तद्रूप+तल्-टाप्] तद्रूप होने की अवस्था या भाव।
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