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टाट  : पुं० [अनु०] १. पटुए, सन आदि की डोरियों से बुनकर तैयार की हुई मोटी कपड़े की तरह की वह रचना जो प्रायः बिछाने, परदों आदि के रूप में टाँगने और बाहर भेजा जानेवाला माल बाँधने आदि के काम आती है। पद–टाट में मूँज का बखिया=एक भद्दी चीज की सजावट में लगी हुई दूसरी भद्दी चीज। टाट मे पाट का बखिया=एक भद्दी चीज की सजावट में लगी हुई दूसरी बढिया चीज। २. एक ही बिरादरी के वे सब लोग जो मध्ययुग में पंचायतों आदि के समय एक ही टाट पर बैठा करते थे। ३. उक्त के आधार पर कोई उप-जाति या बिरादरी। पद–टाट बाहर=जो किसी उप-जाति या बिरादरी से निकाला या बहिष्कृत किया गया हो। ४. महाजनों, साहूकारों आदि के बैठने की गद्दी और उसके आस-पास का बिछावन जो एक टाट के ऊपर बिछा हुआ होता है, और जिस पर बैठकर वे रोजगार या लेन-देन करते हैं। जैसे–अपने टाट पर बैठकर किया जानेवाला सौदा अच्छा होता है। मुहावरा–(महाजन या साहूकार का) टाट उलटना=दिवालिया बनकर पावनेदारों का भुगतान बंद कर देना। जैसे–लक्षणों से तो ऐसा जान पड़ता है कि दस-पाँच दिन में वह टाट उलट देगा। ५. टाट की वह थैली जिसमें एक हजार रुपये आते हैं। ६. महाजनी बोलचाल में एक हजार रुपये। जैसे–इस मुकदमें में चार टाट लग गये। वि० [अं० टाइट] अच्छी तरह कसा, बैठाया या जमाया हुआ। (लश०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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टाटक  : वि०=टटका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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टाटबाफी जूता  : पुं० [फा० तारबाफी] कामदार जूता।
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टाटर  : पुं० १.=टट्टर। २.=टाँट (खोपड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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टाटा  : वि०=टाठा (हृष्ट-पुष्ट)। वि०=टाठा (सूखा हुआ)।
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टाटिका  : स्त्री०=टट्टी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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टाटी  : स्त्री=टट्टी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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