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जाल  : पुं० [सं०√जल् (घात)+ण, बँ० पं० जाल्; सि० जारु, गु० जाडू, मरा० जाड़े] [स्त्री० अल्पा० जारी] १. धागे सुतली आदि की बुनी हुई वह छेदोंवाली रचना जो चिड़ियाँ मछलियाँ आदि फँसाने के काम आती है। मुहावरा–जाल डालना या फेंकना=मछलियाँ आदि पकड़ने के लिए जलाशय या नदी में जाल छोड़ना। जाल फैलाना या बिछाना-चिड़ियों पशु-पक्षियों आदि को फँसाने के लिए जाल लगाना। २. उक्त के आधार पर छेदोंवाली कोई रचना जिसमें कोई चीज फँसती या फँसाई जाती हो। जैसे–मकड़ी का जाल(जाला)। ३. बुनी या बुनाई हुई कोई छेदोंवाली रचना। जैसे–टेनिस या फुटबाल के खेल में खंभों में बाँधा जानेवाला जाल। ४. झरोखा। ५. जाल की तरह का तंतुओं रेशों आदि का उलझा हुआ रूप। जैसे–जटा या जड़ों का जाल। ६. रेखा या रेखाओं के आकार की वस्तुओं के एक दूसरे को काटते हुए मिलने से बननेवाला उक्त प्रकार का रूप। जैसे–(क) किसी देश में बिछा हुआ नदियों का जाल। (ख) साड़ी में बना हुआ जरदोजी के तारों का जाल। ७. आपस में गुथी हुई तथा दूर तक फैली हुई चीजों का विस्तार या समूह। जैसे–पद्य जाल। ८. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसी युक्ति जिसके कारण कोई दूसरा व्यक्ति प्रायः असावधानता के कारण धोखा खाता हो। जैसे–तुम्हारे जाल में वे भी फँस जायँगे। मुहावरा–(बातों के संबंध में) जाल बिछाना या फैलाना=कोई ऐसी युक्ति निकालना जिससे कोई दूसरा व्यक्ति धोखा खा जाय। (व्यक्ति के संबंध में) जाल बिछाना=स्थान-स्थान पर किसी को पकडऩे के लिए व्यक्ति खड़े करना। ९. इंद्र-जाल १॰. अभिमान। घमंड। ११. वनस्पतियों आदि को जलाकर तैयार किया हुआ क्षार। खार। १२. कदंब का वृक्ष। १३. फूल की कली। १४. पुरानी चाल की एक प्रकार की तोप। पुं० [अ० जअल मि० सं० जाल] [वि० जाली] १. कोई दुष्ट उद्देश्य़ सिद्ध करने के लिए किसी वास्तविक वस्तु का तैयार किया हुआ नकली रूप। २. विधिक क्षेत्र में, ऐसे पत्र, लेख आदि जो वास्तविक न होने पर भी वास्तविक के रूप में उपस्थित करना। (फोरजरी)।
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जाल-कारक  : पुं० [ष० त०] मकड़ा।
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जाल-कीट  : पुं० [ब० स०] १. मकड़ी। २. [मध्य० स०] मकड़ी के जाल में फँसा हुआ कीड़ा।
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जाल-गर्दभ  : पुं० [मध्य० स०] एक क्षुद्र रोग जिसमें शरीर में सूजन, ज्वर आदि होते हैं। (सुश्रुत)।
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जाल-जीवी(विन्)  : पुं० [सं० जाल√जीव् (जीना)+णिनि] मछुआ। धीवर।
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जाल-पाद  : पुं० [ब० स०] १. हंस। २. एक प्राचीन देश। ३. ऐसा जंतु या पक्षी जिसके पैर जालीदार झिल्ली से ढकें हो। जैसे–चमगादड़, बत्तख आदि।
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जाल-प्राया  : स्त्री० [ब० स०] कवच। जिरह-बकतर।
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जाल-बर्बुरक  : पुं० [मध्य० स०] बबूल की जाति का एक प्रकार का पेड़।
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जाल-रंध्र  : पुं० [ब० स०] जालीदार खिड़की। झरोखा।
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जालक  : पुं० [सं०√जल् (संवरण)+घञ्√कै (प्रतीत होना)+क] १. चिड़ियाँ, मछलियाँ आदि फंसाने का जाल। २. घास, भूसा आदि बाँधने का जाल। ३. झुंड। समूह। ४. कली। ५. झरोखा। ६. केला। कदली। ७. चिड़ियों का घोंसला। ८. अभिमान। घमंड। ९. गले में पहनने का मोतियों का एक गहना।
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जालकि  : पुं० [सं०] १. जाल लगाकर पशु-पक्षी या मछलियों को पकड़ने वाला व्यक्ति। २. बाज। ३. मकड़ा। ४. जादूगर।
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जालकिनी  : स्त्री० [सं० जालक+इनि-ङीप्] भेड़ी। मेषी।
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जालकिरच  : स्त्री० [हिं० जाल+किरच] वह पेटी जिसके ऊपर परतला लगा हो और नीचे तलवार लटकती हो।
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जालकी(किन्)  : पुं० [सं० जालक+इनि] बादल। मेघ।
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जालदार  : वि० [हिं० जाल+फा० दार] १. जिसमें जाल की तरह बहुत से छोटे-छोटे छेद हो। जालीदार। २. (वस्त्र) जिस पर धागों अथवा जरदोजी आदि के तारों का जाल बुना हो। जैसे–जालदार साड़ी।
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जालंधर  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि। २. जलंधर नामक दैत्य।
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जालंधरी विद्या  : स्त्री० [सं० जालंधर+अण्-ङीप्, जालंधरी और विद्या व्यस्त पद] इन्द्र जाल।
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जालना  : स०=जलाना।
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जालबंद  : पुं० [हिं० जाल+फा० बंद] एक प्रकार का गलीचा जिस पर कढ़ी हुई बहुत-सी लताओं, बेल-बूटों आदि के एक दूसरे को काटने के कारण जाल-सा बन जाता है।
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जालव  : पुं० [सं०] एक दैत्य जिसका वध बलदेव जी ने किया था। (पुराण)।
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जालसाज  : पुं० [अ० जअल+फा० साज़] ऐसा व्यक्ति जो धोखादेकर अपना काम निकालने के लिए असल चीज की जगह वैसी ही नकली चीज तैयार करता हो।
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जालसाजी  : स्त्री० [फा०] १. जाल साज होने की अवस्था या भाव। २. जालसाज का वह काम जो जाल के रूप में हो।
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जाला  : पुं० [सं० जाल] [स्त्री० अल्पा० जाली] १. घास भूसा आदि बाँधने की बड़ी जाली। २. बहुत से तंतुओं का वह विस्तार जो मकड़ी अपना शिकार फँसाने के लिए दीवारों के कोनों आदि में बनाती है। ३. आँख का एक रोग जिसमें अंदर की ओर मैल के बहुत से तंतु इधर-उधर फैल कर दृष्टि में बाधक होते हैं। ४. सरपत की जाति की एक घास जिससे चीनी साफ की जाती है। ५. पानी रखने का मिट्टी का एक प्रकार का घड़ा। पुं०=जाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=ज्वाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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जालाक्ष  : पुं० [सं० जाल-अक्षि, ब० स० षच्] झरोखा। गवाक्ष।
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जालिक  : पुं० [सं० जाल+ष्ठन्-इक] १. वह जो रस्सियों आदि का जाल बनाता या बुनता हो। २. वह जो जाल में जीव-जंतु फँसाता हो। बहेलिया। ३. बाजीगर। इंद्रजालिक। ४. मकड़ी। डिं०)
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जालिका  : स्त्री० [सं० जाल+ठन्-इक, टाप्] १. जाली। २. पाश। फंदा। ३. विधवा स्त्री। ४. मकड़ी। ५. कवच या जिरह-बक्तर। ६. लोहा। ७. झुंड। समूह।
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जालिनी  : स्त्री० [सं० जाल+इनि-ङीप्] १. कद्दू, घीया, तरोई आदि फल जिनकी तरकारी बनती है। २. परवल की लता। ३. चित्रशाला। ४. प्रमेह के रोगियों को होनेवाला एक रोग जिसमें मांसल अंगों में फुन्सियाँ होती है।
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जालिनी-फल  : पुं० [ष० त०] तरोई। घीया।
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जालिम  : वि० [अ०] जुल्म अर्थात् अत्याचार करनेवाला अत्याचारी।
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जालिमाना  : वि० [अ] अत्याचार संबंधी। अत्याचारपूर्ण।
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जालिया  : पुं० [अ० जअल-फरेब+इया(प्रत्यय)] वह जो नकली दस्तावेज आदि बनाकर जालसाजी करता हो और इस प्रकार दूसरों की सम्पत्ति छीनता हो। जालसाज। पुं० [हिं० जाल] १. कोई ऐसी रचना जिसमें प्रायः नियत और नियमित रूप से थोड़ी दूर पर छेद या कटाव हो। जैसे–दीवार में बनी हुई सीमेंट की जाली। २. एक प्रकार का कपड़ा जिसमें उक्त प्रकार के बहुत छोटे-छोटे छेद हो। ३. कच्चे आम के अंदर का तंतुजाल। ४. वह क्षेत्र जिसका पानी ढलकर किसी नदी में मिलता हो। ढलान। (कैचमेंट एरिया) ५. दे० ‘रंध्र’ (किले का)। ६. कुट्टी या चारा काटने का गड़ाँसा। ७. डोरियों आदि की वह जालदार रचना जिसमें घास-भूसा आदि बाँधते हैं। वि० जो जाल रचकर धोखा देने के लिए बनाया गया हो। झूठा और नकली या बनावटी। जैसे–जाली, दस्तावेज, जाली सिक्का।
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जालीदार  : वि० [देश०] (रचना) जिसमें जाली कटी या बनी हो।
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जाल्म  : वि० [सं०√जल् (दूर करना)+णिच्+म] १. नीच। २. मूर्ख।
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जाल्मक  : वि० [सं० जाल्म+कन्] १. घृणित। २. नींच।
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