शब्द का अर्थ
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किस :
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सर्व० वि० [सं० किम्० से] कौन और क्या का वह रूप जो उसे विभक्ति लगने के समय प्राप्त होता है। जैसे—किसका किसने आदि। क्रि० वि० [हिं० कैसे] किस प्रकार। (क्व०) |
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किसन :
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वि० पुं० =कृष्ण। |
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किसनई :
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स्त्री० [हिं० किसान+इनि (प्रत्यय)] किसान का काम। खेती-बारी। |
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किसब :
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पुं० =कसब। |
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किसबत :
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पुं० [अं०] वह छोटी थैली जिसमें नाई अपने उस्तरे, कैंची आदि रखते हैं। |
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किसमत :
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स्त्री०=किस्मत (भाग्य)। |
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किसमिस :
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स्त्री०=किशमिश। |
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किसमी :
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पुं० [अ० कसबी] श्रमजीवी। मजदूर। (राज०)। |
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किसल, किसलय :
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पुं० [सं० किम्√सल् (गति)+कयन्, पृषो० सिद्धि] पेड़-पौधों आदि में से निकलनेवाले छोटे नये पत्ते। कोमल पत्ता। कल्ला। |
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किसान :
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पुं० [सं० कृषाण, पं० मरा० किसाण] [भाव० किसानी] १. वह जो खेती-बारी का काम करता हो। खेतों को जोतने उनमें बीज बोने होने वाली फसल आदि का काम करनेवाला व्यक्ति। २. रहस्य० संप्रदाय में शरीर की इंद्रियाँ जो पाप-पुण्य करके बुरे-भले फल प्राप्त करती हैं। |
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किसानी :
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वि० १. =कृषि संबंधी। २. किसान संबंधी। |
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किसिम :
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स्त्री०=किस्म। |
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किसी :
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सर्व० [हिं० किस+ही०] ‘कोई’ का वह रूप जो उसे विभक्ति लगने पर प्राप्त होता है जैसे—किसी आदमी को वहाँ भेज दो। वि ‘कोई’ का वह रूप जो विभक्ति लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—यह तो किसी काम का नहीं है। पद—किसी-न-किसी=यदि एकत नहीं तो दूसरा। कोई एक। जैसे—किसी-न-किसी ने तो किताब उठाई ही है। |
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किसु :
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सर्व० १. =किस० २. =किसका। ३. =किसको। किसे। |
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किसुन :
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पुं० =कृष्ण। |
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किसोरक :
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पुं० =किशोरक। (छोटा बच्चा या बालक) उदाहरण—ससिहिं चकोर किसोरक जैसे।—तुलसी। |
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किसौ :
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सर्व० [सं० किदृश, प्रा० किसउ]=किस। उदाहरण—वयण डेडराँ किसौ वस।—प्रिथीराज। |
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किस्त :
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स्त्री० [अ० किस्त] १. ऋण के भुगतान करने की वह प्रणाली जिसके अनुसार ऋणी को कुछ निश्चित अवधियों में ऋण को बराबर कई खंडों में चुकाना पड़ता है। २. ऋण या देय का उतना अंश जितना किसी एक अवधि में चुकाया या दिया जाय या चुकाये जाने को हो। ३. किसी वस्तु की प्राप्य कुल मात्रा का वह अंश जो किसी एक अवधि या समय में दिया या लिया जाय। (इन्स्टालमेन्ट)। |
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किस्तबंदी :
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स्त्री० [फा०] किस्त के रूप में अर्थात् कई बार में थोड़ा-थोड़ा करके देन आदि चुकाने या वसूल करने की प्रणाली। |
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किस्तवार :
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क्रि० वि० [फा०] १. किस्तों के रूप में। किस्त-किस्त करके। २. हर किस्त पर अलग-अलग। |
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किस्ती :
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वि० [अ०] किस्त-संबधी, किस्त का। स्त्री० दे० ‘किस्त’। |
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किस्बत :
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स्त्री० [अ०] १. पहनने के वस्त्र। २. कपड़े की बनी हुई वह थैली जिसमें दरजी हज्जाम आदि अपने औजार रखते हैं। |
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किस्म :
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स्त्री० [अ०] १. एक ही आकार-प्रकार के जीवों, वस्तुओं आदि का वह वर्ग या अंश जो कुछ या कई—गुणों अथवा दृष्टियों से एक कोटि या श्रेणी का माना जाता हो। प्रकार। जैसे—इन दोनो देशों के रीति-रिवाज एक ही किस्म के हैं। २. ढंग। तरीका। |
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किस्मत :
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स्त्री० [अ०] १. ‘तकसीस’ होने या बाँटे जाने की क्रिया या भाव। बँटवारा। विभाजन। २. प्रयत्न। भाग्)। मुहावरा—किस्मत आजमाना=कोई प्रयत्न करके यह देखना कि इससे हमें यथेष्ट लाभ होता है कि नहीं। किस्मत खुलना=सुख-सौभाग्य आदि का समय या स्थिति। किस्मत चमकना=सुख-सौभाग्य आदि की स्थिति आना। किस्मत जागना=कष्ट के दिन बीत जाने पर अच्छे और सुख-सौभाग्य के दिन आना। किस्मत फूटना-भाग्य का इतना मन्द हो जाना कि सब प्रकार के सुखों या सौभाग्य का अन्त हो जाय। किस्मत लड़ना=(क) ऐसी स्थिति में होना जिसमें भाग्यवान् और अभागे होने की परीक्षा हो। (ख) सुख और सौभाग्य का समय आना। पद—किस्मत का धनी=बहुत बड़ा भाग्यवान्। किस्मत का फेर=ऐसी स्थिति जिसमें भाग्य मंद पड़ जाय और सुख-सौभाग्य उतार पर हो। किस्मत का बदा या लिखा=वह जो कुछ अपने प्रारब्ध या भाग्य पर हो। किस्मत का हेठा=अभागा, भाग्यहीन। ३. किसी राज्य का वह भाग जिसमें कई जिले हों और जो एक कमिश्नर के अधीन हो। कमिश्नरी। |
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किस्मतवर :
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वि० [फा०] भाग्यवान्। भाग्यशाली। |
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किस्सा :
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पुं० [अं०] १. कोई कल्पित घटना या मनगढंत बात, जो विवरणात्मक रूप में कहीं बतलाई या लिखी जाय। कहानी। पद—किस्सा कोताह=सारांश यह कि। थोड़े में यह कि। ३. समाचार। हाल। ४. घटनाओं की परम्परा। जैसे—तुमने तो एक ही बात में सारा किस्सा खतम कर दिया। मुहावरा—किस्सा पाक होना=(बात या व्यक्ति का) अंत या समाप्ति होना। ५. झगड़ा। बखेड़ा। |
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