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इष्ट  : वि० [सं०√इष् (चाहना)+क्त] [स्त्री० इष्टा] (कार्य या पदार्थ) जिसकी सिद्धि या प्राप्ति की मन में उत्कट इच्छा हो। जिसकी बहुत चाह हो। वांछित। पुं० १. कोई ऐसी अभिलाषित बात या वस्तु जिसकी सिद्धि या प्राप्ति के लिए प्रयत्नपूर्वक आगे बढ़ा जाए। ध्येय। (गोल) २. किसी का वह देवता जिसकी उपासना सब प्रकार की कामनाओं की पूर्ति के लिए की जाय। ३. ऐसे प्रिय और समीपी लोग जिनका करने को जी चाहता हो। जैसे—इष्ट-मित्र। ४. परमात्मा। ५. विष्णु। ६. स्त्री के विचार से उसका पति। ७. अग्निहोत्र आदि शुभ और श्रुति-संमत कर्म। ८. ईट। ९. रेड़ का पेड़।
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इष्ट-काल  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा काल या समय जो कोई कार्य करने के उपयुक्त या शुभ माना गया हो।
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इष्टका  : स्त्री० [सं० इष्ट+कन्-टाप्] १. ईंठ। २. यज्ञ कुंड या वेदी बनाने की ईंट।
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इष्टता  : स्त्री० [सं० इष्ट+तल्-टाप्] १. इष्ट होने की अवस्था या भाव। २. मित्रता। दोस्ती।
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इष्टा  : स्त्री० [सं०इष्ट+टाप्] प्रिया। प्रेमिका। उदाहरण—इष्टा को गुन सुमिरै लागा।—नूर मोहम्मद।
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इष्टापत्ति  : स्त्री० [इष्ट-आपत्ति, ष० त०] वाद-विवाद आदि के समय होनेवाली ऐसी आपत्ति जो उस व्यक्ति की दृष्टि से इष्ट या लाभ दायक हो, जिसके संबंध में वह आपत्ति की गई हो।
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इष्टि  : स्त्री० [सं० इष् (चाहना)+क्तिन्] १. ऐसा काम या बात जो इष्ट हो। २. टीका या भाष्य करने वाले की ओर से होनेवाला ऐसा स्पष्टीकरण जिसका उल्लेख वार्तिक या सूत्र में तो न हो, फिर भी टीका या भाष्य करनेवाले की दृष्टि में जो मूल में इष्ट रहा हो। ३. अभिलाषा। इच्छा। ४. प्राप्ति, सिद्धि आदि के लिए होनेवाला प्रयत्न। ५. यज्ञ में दूध, फल आदि की हवि (पशुओं की बलि, सोम आदि की हवि से भिन्न)।
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