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शब्द का अर्थ

आस  : पुं० [सं० आ√आस्(बैठना)+घञ्] १. कमान। धनुष। २. दिशा। ३. चूतड़। नितंब। स्त्री० [सं० आशा] आशा। उम्मेद। मुहावरा—आस टूटना=आशा या उम्मेद न रह जाना। आस पूजना-आशा पूरी होना। अव्य०=१. भरोसे। सहारे। २. (किसी बात के) कारण। वजह से। मारे। उदाहरण—सचिव बैद गुरु तोनि जो प्रिय बोलहि भय आस।—तुलसी।
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आसक  : पुं० =आशिक (प्रेमी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आसकत  : स्त्री० [सं० अशक्ति] [वि० आसकती, क्रि० असकताना] कोई काम करने के समय होनेवाला आलस्य या सुस्ती। वि० =आसक्त। उदाहरण—नैना निरखत हरखत आसकत हैं-सेनापति।
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आसकती  : वि० [हिं० आसकत] आलसी।
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आसक्त  : पुं० [सं० आ√संज्+क्त] [भाव० आसक्ति] १. किसी के साथ लगा या सटा हुआ। २. किसी के साथ बहुत अधिक अनुराग या प्रेम करनेवाला। जो किसी पर लुब्ध या मुग्ध हो। मोहित। (अटैच्ड) ३. लिप्त। लीन।
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आसक्ति  : स्त्री० [सं० आ√संज्+क्तिन्] [वि० आसक्त] १. आसक्त होने की अवस्था या भाव। २. किसी के प्रति विशेष रूप से और बहुत अधिक होनेवाला अनुराग या प्रेम। (अटैचमेन्ट) ३. लिप्तता। लीनता।
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आसंग  : पुं० [सं० आ√संज्(मिलना)+घञ्] १. संग या साथ रहने की क्रिया या भाव। २. लगाव। संपर्क। ३. किसी काम, विशेषतः भोग-विलास के प्रति होनेवाली तीव्र प्रवृत्ति या लीनता। आसक्ति। लिप्पता। ४. यह समझना कि अमुक कार्य विशेष रूप से मैंने ही किया है। अपने कर्तृव्य का अभिमान। ५. मुलतानी मिट्टी। ६. सुगंधित मिट्टी। ७. दे० आसंजन। अव्य० निरंतर। बराबर। लगातार।
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आसंगत्य  : पुं० [सं० असंगत+ष्यञ्] १. असंगत होने की अवस्था या भाव। २. वियोग।
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आसंगी (गिन्)  : वि० [सं० आ√संज्+णिनि] आसंग (विशेष प्रवृत्ति या संपर्क) रखनेवाला।
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आसंजन  : पुं० [सं० आ√संज्+ल्युट्-अन] [कर्त्ता-आसंजक, भू० कृ० आसंजित] १. किसी के साथ अच्छी तरह जोड़ना,बाँधना या लगाना। २. धारण करना। पहनना। जैसे—वस्त्र आदि। ३. अधिक मात्रा में होनेवाला अनुराग या आसक्ति। ४. आज-कल न्यायालय की आज्ञा से किसी अपराधी या ऋणी की संपत्ति पर होनेवाला अधिकार। कुर्की। (एटैचमेन्ट)
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आसंजित  : भू० कृ० [सं० आ√संज्+णिच्+क्त] (संपत्ति) जिसका आसंजन न हुआ हो। कुर्क किया हुआ। (एटैच्ड)
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आसतीन  : स्त्री० =आस्तीन।
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आसते  : अव्य० [फा० आहिस्तः] पुं० हिं० आछत का स्थानिक रूप। अव्य० [सं० अस्ति] (किसी के) रहते या होते हुए।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसतोष  : पुं० =आशुतोष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसत्ति  : स्त्री० [सं० आ√सद्+क्तिन्] १. समीपता। २. न्याय में, पास-पास रहनेवाले शब्दों का पारस्परिक संबंध।
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आसथा  : स्त्री० =आस्था।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसथान  : पुं० =आस्थान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसंद  : पुं० [सं० आ√सद्(बैठना)+घञ्, नुम्] विष्णु या वासुदेव।
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आसंदी  : स्त्री० [सं० आ√सद्+(नि०)अच्,नुम्-ङीष्] १. बैठने का कुछ ऊँचा छोटा आसन। जैसे—चौकी, मोढा आदि। २. खटोला।
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आसन  : पुं० [सं०√आस्+ल्युट्-अन] १. बैठने की क्रिया या भाव। बैठक। २. बैटने का कोई विशिष्ट ढंग प्रकार या मुद्रा। क्रि०प्र०-मारना। लगाना। मुहावरा—आसन उखड़ना=(क) बैठने की निश्चित मुद्रा में हिलते-डोलने आदि के कारण बाधा होना। उठकर इधर-उधर या खड़ा होना। (ख) ऐसी स्थिति उत्पन्न होना कि रहने बैठने आदि के स्थान से हटकर कहीं और जाना पडे। आसन जमना=बैठने में स्थायित्व या स्थिरता आना। आसन डिगना या डोलना=(क) आसन उखाड़ना। (ख) किसी प्रकार के आकर्षण बाधा आदि के कारण चित्त या मना चंचल होना। ३. कपड़े कुश आदि का बना हुआ वह चौकोर टुकड़ा जिसपर लोग बैठते हैं। मुहावरा—(किसी को) आसन देना=सत्कारार्थ बैठने के लिए कोई चीज सामने रखना या बतलाना। ४. साधु-सन्यासियों आदि के बैठने और रहने का स्थान। ५. योग-साधन के लिए बैठने की कोई विशिष्ट मुद्रा या स्थिति। जैसे—पदमसन वीरासन आदि। मुहावरा—आसन लगाना=उक्त प्रकार की किसी विशिष्ट मुद्रा में स्थित होना। ६. काम-शास्त्र में, संभोग की कोई विशिष्ट मुद्रा या स्थिति। बंध। ७. हाथी का कंधा, जिसपर बैठकर उसे चलाते हैं। ८. प्राचीन राजनीति में, शत्रु के आक्रमण, दाँव-पेंच आदि के सामने अच्छी तरह जमे या ठहरे रहने का भाव या स्थिति। किसी प्रकार अपनी मर्यादा, स्थान आदि से विचलित न होना।
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आसना  : अ० [सं० अस्-होना] होना। पुं० [सं० आसन√आस्+ल्युट्] १. वृक्ष। २. जीव। वि० -आसन्न।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसनी  : स्त्री० [सं० आसन का हिं० अल्पा०] बैठने का छोटा आसन (कपड़े, कुश आदि का)।
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आसन्न  : वि० [सं० आ√सद्+क्त] १. (मात्रा, समय, स्थान आदि के विचार से) किसी के पास या समीप आया या पहुँचा हुआ। निकटवर्ती। समीपस्थ। जैसे—आसन्न प्रसवा। आसन्न मृत्यु आदि। २. किसी के साथ सटा या लगा हुआ। संलग्न।
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आसन्न-काल  : पुं० [ष० त०] मृत्यु का समय। मृत्युकाल।
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आसन्न-कोण  : पुं० [कर्म० स०] ज्यामिति में, उन दोनों कोणों में से हर एक जो एक सीधी रेखा के ऊपर खड़ी दूसरी रेखा के दोनों ओर बनते हैं। (एडैजसेंट एंगिल)
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आसन्न-प्रसवा  : स्त्री० [ब० स०] वह जिसे शीघ्र ही प्रसव होने को हो।
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आसन्न-भूत  : पुं० [कर्म० स०] व्याकरण में भूत-काल का वह रूप जिससे सूचित होता है कि भूतिकालिक क्रिया या तो वर्तमान काल में पूरी हुई है (जैसे—मैं वहाँ हो आया हूँ) अथवा उसकी पूर्णता या स्थिति वर्तमान काल में भी व्याप्त है (जैसे—(क) तुलसी दास ने राम का ही गुण गाया है, (ख) वह अभी तक वहाँ खड़ा है या खड़ा हुआ है)।
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आसन्नता  : स्त्री० [सं० आसन्न+तल्-टाप्] आसन्न होने की अवस्था या भाव। निकटता। समीपता।
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आसपास  : अव्य० [सं० अश्र+पार्श्व, प्रा० अस्स, पस्स, का० गु० मरा० आस-पास, सिंह० आसि यासि, पं० आसे पासे] १. अलग-बगल। इर्द-गिर्द। जैसे—उस मकान के आस-पास कई खेत (या पेड़) थे। २. किसी स्थान के समीप इस ओर, उस ओर या चारों तरफ। इधर-उधर।
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आसबंद  : पुं० [हिं० आस (आधार या आश्रय)] वह मोटा तागा जिसे पटुए अपने घुटने पर (गूँथा जानेवाला गहना अटकाने के लिए) बाँधे रहते हैं।
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आसमाँ  : पुं० =आसमान।
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आसमान  : पुं० [फा० मिलाओ सं० आशा-दिशा या स्थान+मान] [वि० आसमानी] आकाश (दे०)। मुहावरा—आसमान के तारे तोड़ना=बहुत ही विकट और श्रम साध्य काम भी पूरा कर दिखलाना। आसमान जमीन के कुलाबे मिलाना=(क) खूब बढ़चढ़कर बातें करना। लंबी चौड़ी हाँकना। (ख) असंभव तथा बहुत विकट कार्य करने के मँसूबे बाँधना। आसमान झाँकना या ताकना=(क) अभिमानपूर्वक सिर ऊँचा करना या तानना। (ख) वास्तविकता का ध्यान छोड़कर असंभव बातों की ओर ध्यान देना। (किसी पर या सिर पर) आसमान टूटना या टूट पड़ना=सहसा विपत्तियों का पहाड़ ऊपर आ गिरना। (किसी को) आसमान दिखाना=(क) कुश्ती में, एक पहलवान का दूसरे को पछाड़कर चित्त गिराना। (ख) प्रतिपक्षी को पूरी तरह से हराना। आसमान पर उड़ना=(क) अभिमान पूर्ण आचरण करना। (ख) बढ़चढ़ कर बातें करना। लंबी चौड़ी हाँकना। आसमान पर चढ़ना=अपने आपको बहुत ऊँचा या बड़ा समझना। (किसी को) आसमान पर चढ़ाना=किसी की इतनी अत्यधिक प्रशंसा करना कि उसे अभिमान होने लगे। आसमान पर थूकना=किसी महान व्यक्ति को तुच्छ ठहराने की चेष्ठा करना, जिसके फलस्वरूप स्वयं ही तुच्छ और हास्यास्पद बनना पड़े। आसमान में छेद करना या थिगली लगाना=आसमान के तारे तोड़ना। आसमान में छेद हो जाना=बहुत अधिक वर्षा होना (व्यग्य और हास्य)। आसमान सिर पर उठाना=बहुत अधिक उपद्रव, ऊधम या हलचल मचाना। (कोई चीज) आसमान से गिरना=(क) अकारण या असमय प्रकट होना। (ख) अनायास प्राप्त होना। (वस्तु रचना आदि का) आसमान से बातें करना=बहुत अधिक ऊँचा या उन्नत होना। जैसे—वहाँ के महल (या पहाड़) आसमान से बातें करते थे। (किसी का) दिमाग आसमान पर होना-इतना अधिक अभिमान होना कि तथ्य या वास्तविक की उपेक्षा होने लगे।
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आसमान-खोंचा  : वि० [फा० आसमान+हिं० खोंचा-खोंचने या चुभनेवाली चीज] १. इतना ऊँचा या लंबा जो ऊपर आसमान तक चला गया हो। गगन-चुंबी। जैसे—आसमान-खोंचा धरहरा, बाँस या लग्घा। पुं० बहुत लंबी नली वाला एक प्रकार का हुक्का जो नीचे जमीन पर रखा रहता था और जो बहुत ऊँचे तख्त या कोठे पर बैठकर पीया जा सकता था।
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आसमानी  : वि० [फा०] १. आकाश-संबंधी। आसमान का। २. आकाशस्थ। जैसे—आसमानी तारे, आसमानी लोग। ३. ईश्वर की ओर से होनेवाला। दैवी। ४. आसमान के रंगवाला। हलका नीला। (स्काई-ब्ल्यू) स्त्री० १. ताड़ी। २. मिस्र देश की एक प्रकार की कपास। ३. कहारों की बोली में, रास्तें में पडनेवाली पेड़ की डाल। पुं० एक प्रकार का रंग जो हलका नीला होता है।
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आसय  : पुं० =आशय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसर  : पुं० =आशर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसर  : वि० [सं० असुर+अण्] १. असुर-संबंधी। २. असुरों की तरह का। जैसे—आसुर-विवाह (देखें)। पुं० सोंचर नमक। विड्लवण। पुं० [सं० असुर] असुर। राक्षस। उदाहरण—काहू कहूँ सुर असुर मार्यौ।—केशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसरना  : अ० [सं० आश्रय] १. आसरा या सहारा लेना। २. शरण लेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसरा  : पुं० [सं० आश्रय] १. वह जिसके आधार या सहारे पर कुछ टिका, ठहरा, रुका या लगा हो। अवलंब। आधार। जैसे—गिरनेवाली छत के नीचे खंभे का आसरा लगाना। २. वह जिसपर काल-यापन, जीवन-निर्वाह, भरण-पोषण, स्थिति आदि आश्रित हो। अवलंब। ३. रक्षा, शरण आदि का स्थान। ४. किसी आशा की पूर्ति या कार्य की सिद्धि के संबंध में होनेवाली आशा या विश्वास। जैसे—हमें तो बस आपका ही सहारा है। ४. इंतजार। प्रतीक्षा। मुहावरा—(किसी की) आसरा देखना=प्रतीक्षा करना। रास्ता देखना। पुं०=आशा।
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आसरैत  : वि० [हिं० आसरा से] किसी के आसरे या सहारे रहनेवाला। आश्रित। स्त्री० वह स्त्री जो किसी पर पुरुष का आश्रय लेकर उसके साथ पत्नी के रूप में रहती हो। रखेली।
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आसव  : पुं० [सं० आ√सु+अण्] १. फलों आदि के खमीर से बनाया हुआ एक प्रकार का मद्य जो भभके से बिना चुआये ही बनता है। (वाइन) २. वैद्यक में कुछ विशिष्ट प्रकार से बनाया हुआ वह मद्य जिसका प्रयोग पौष्टिक पेय के रूप में होता है। जैसे—द्राक्षासव। ३. कोई मधुर और मादक पदार्थ जो किसी रूप में पान किया जाता हो। जैसे—अधरासव। ४. कोई उत्तेजक या बलवर्धक चीज या बात। ५. वह पात्र जिसमें मद्य पीते हैं।
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आसवक  : पुं० [सं० आ√सु+ण्वुल्-अक] वह जो भभके आदि से अरक, शराब आदि चुआता हो। आसव बनानेवाला। (डिस्टिलर)
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आसवन  : पुं० [सं० आ√सु+ल्युट्-अन] [कर्त्ता, आसवक, भू० कृ० आसवित, आसुत] १. किसी तरल पदार्थ को गरमाकर उसे वाष्प के रूप में लाना और फिर उस वाष्प को ठंढा करके तरल रूप देना। २. भभके आदि की सहायता से अरक, शराब आदि का चुआना या टपकाना। (डिस्टिलेशन)
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आसवनी  : स्त्री० [सं० आसवन से] १. वह स्थान जहाँ आसवन का काम होता हो। २. वे यंत्र आदि जिनकी सहायता से आसवन किया जाता है। (डिस्टिलरी)
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आसवित  : भू० कृ० [सं० आसवन] जिसका आसवन किया गया हो। आसव के रूप में तैयार किया हुआ। (डिस्टिल्ड) जैसे—आसवित जल।
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आसवी (दिन्)  : पुं० [सं० आसव+इनि] वह जो शराब पीता हो। वि० आसन-संबंधी।
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आसा  : पुं० [अ० असा] सोने या चाँदी का डंडा जिसे सजावट के लिए राजा-महाराजाओं की सवारी, बरात आदि के आगे चोबदार लेकर चलते हैं। स्त्री० =आशा। स्त्री० =दिशा।
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आसा-बरदार  : पुं० [अ० असा+फा० बरदार] वह सेवक जो राजा की सवारी, जलूस, बरात आदि में शोभा के लिए आसा लेकर आगे-आगे चलता है।
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आसा-बल्लभ  : पुं० [हिं० आसा+बल्लभ-भाला] आसा या सोंटा और बल्लभ या भाला जो राजा की सवारी, बरात आदि में साथ-साथ आगे चलते हैं।
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आसा-वाद  : पुं० [ष० त०] [वि० आशावादी] वह लौकिक सिद्धांत जिसमें यह माना जाता है कि इस संसार में अंत में सब दोषों और बुराइयों का नाश होगा और उनपर सद्गुणों और सद्भावों को विजय प्राप्त होगी। निराशावाद का विपर्याय। (अप्टिमिज्म)
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आसाढ़  : पुं० =आषाढ़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसादान  : पुं० [सं० आ√सद्+णिच्+ल्युट्] [भू० कृ० आसादित] १. नीचे रखना। २. आक्रमण करना। ३. प्राप्त या हस्तगत करना।
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आसान  : वि० [फा०] [वि० आसानी] (काम) जो सहज में किया जा सकता हो। सरल। सुगम।
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आसानी  : स्त्री० [फा०] [वि० आसान] सरलता। सुगमता।
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आसाम  : पुं० [सं० असम] भारतीय गणराज्य का एक उत्तर-पूर्वी प्रदेश। असम राज्य। प्राचीन कामरूप देश।
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आसामी  : वि० [हिं० आसाम] १. आसाम या असम देश का। २. आसाम या असम-संबंधी। पुं० आसाम या असम देश का निवासी। स्त्री० आसाम या असम देश की भाषा।
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आसामुखी  : वि० [स० आशा+मुख] अपनी आशा की पूर्ति के लिए दूसरों का मुँह देखनेवाला। उदाहरण—जो जाकर अस आसामुखी। दुख महँ ऐसन मारै दुखी।—जायसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आसार  : पुं० [सं० आ√सृ+घञ्] १. शत्रु को चारों ओर से घेरकर उस पर किया जानेवाला आक्रमण। २. मूसलाधार वृष्टि। ३. मेघ-माला। (डिं०) ४. युद्ध आदि में मित्रों से मिलनेवाली सहायता। ५. खाने-पीने की सामग्री। रसद। पुं० [अ०] १. चिह्न। निशान। २. किसी बात या व्यक्ति की भावी गति विधि आदि का लक्षण। ३. इमारत की नींव। ४. दीवार की चौड़ाई।
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आसावरी  : स्त्री० [?] १. प्रातःकाल। १ दंड से ५ दंड के बीच में गाई जानेवाली श्रीराग की एक रागिनी। २. एक प्रकार का सूती कपड़ा। पुं० एक प्रकार का कबूतर।
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आसिक  : पुं० [सं० असि+ठक्-इक] तलवार चलानेवाला योद्धा। वि० -आशिक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसिख  : स्त्री० =आशिष (असीस)।
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आसिद्ध  : वि० [सं० आ√सिध्+क्त] १. (व्यक्ति) जिसपर किसी प्रकार का असेध, प्रतिबंध या रुकावट लगाई गयी हो। २. (कार्य या बात) जिसके संबंध में आसेध या प्रतिबंध लगा हो। (रेस्ट्रिक्टेड)
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आसिन  : पुं० =आश्विन (महीना)।
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आसिरबचन  : पुं० =आशीर्वाद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसिरबाद  : पुं० =आशीर्वाद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आसिष  : स्त्री० =आशीष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसी  : वि० =आशी (खानेवाला)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसीन  : वि० [सं० √आस्+शानच्, इत्व] [स्त्री० आसीना] १. जिसने आसन ग्रहण किया हो। बैठा हुआ। २. जो किसी पद पर नियुक्त होकर बैठा हो।
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आसीबिख  : पुं० [सं० आशीविषः] वह साँप, जिसका जहर बहुत जल्दी चढ़ता हो।
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आसीस  : स्त्री० =आशिष (आशीर्वाद)। पुं० =आसीसा।
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आसीसा  : पुं० =[सं० आ+शीर्ष] तकिया।
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आसु  : सर्व० [सं० अस्य] इसका। पुं० [सं० आश] प्राण। जीवनी शक्ति। अव्य० =आशु (जल्दी)। उदाहरण—जारहि भवन चारि दिसि आसू।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसुग  : वि० =आशुग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसुत  : भू० कृ० [सं० आ√सु+क्त] =आसवित।
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आसुति  : स्त्री० [सं० आ√सु+क्तिन्] १. आसवन करने की क्रिया या भाव। २. प्रसव।
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आसुर-विवाह  : पुं० [सं० ] आठ प्रकार के विवाहों में से एक जिसमें कन्या के माता-पिता को धन देकर उनसे कन्या ली जाती थी और तब पत्नी के रूप में अपने घर में रखी जाती थी।
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आसुरी  : वि० [सं० आसुर] १. असुर संबंधी। असुरों का। जैसे—आसुरीमाया। २. असुरों की तरह का। जैसे—आसुरी विवाह। ३. असुरों के ढंग से (अर्थात् उग्रता, क्रूरता, निर्दयता आदि से) किया हुआ। जैसे—आसुरी चिकित्सा, आसुरी संपत् आदि। स्त्री० [सं० असुर+अण्+ङीष्] १. असुर या राक्षस जाति की स्त्री। २. वैदिक छंद का एक भेद। ३. राई। ४. सरसों। ५.एक प्रकार का सिरका।
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आसुरी चिकित्सा  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] १. ऐसी उग्र या क्रूरतापूर्ण चिकित्सा जिसमें रोगी के उन शारीरिक कष्टों का कुछ भी ध्यान न रखा जाए जो चिकित्सा के फलस्वरूप होते है। २. चीर-फाड़ आदि के रूप में होनेवाली चिकित्सा। शल्य-चिकित्सा।
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आसुरी संपत्  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद] असुरों की तरह अनीति, अन्याय या कुमार्ग से अर्जित अथवा प्राप्त किया हुआ धन या वैभव। बुरी कमाई।
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आसुरी-विवाह  : पुं०=आसुर-विवाह।
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आसूँ  : पुं० [सं० अश्वयुज्] आश्विन का महीना।
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आसू  : अव्य० =आशु (शीघ्र)। पुं०=आसूँ (आश्विन महीना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसूदगी  : स्त्री० [फा०] १. धन-धान्य आदि की दृष्टि से निश्चितता और सुख से युक्त अवस्था या स्थिति। २. तृप्ति।
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आसूदा  : वि० [फा० आसूदः] १. धन-धान्य आदि केविचार से निश्चित और सुखी। २. तृप्त। संतुष्ट।
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आसेक  : पुं० [सं० आ√सिच्+घञ्] १. तर करना। भिगोना। २. खेत या पेड़-पौधे सींचना। सिंचाई। (इरिगेशन)
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आसेचन  : पुं० [सं० आ√सिच्+ल्युट्] =आसेक।
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आसेध  : पुं० [सं० आ√सिध्+घञ्] [भू० कृ० आसिद्ध] १. राज्य या राज्याधिकारी की दी हुई ऐसी आज्ञा जो किसी को कोई काम करने से रोकती हो। २. किसी प्रकार का प्रतिबंध। (रेस्ट्रिक्शन)
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आसेधक  : पुं० [सं० आ√सिध्+ण्वुल्-अक] आसेध करने या प्रतिबंध लगानेवाला।
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आसेब  : पुं० [फा०] १. भूत-प्रेत। २. उनके कारण होनेवाला कष्ट या बाधा। ३. कष्ट। विपत्ति।
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आसेर  : पुं० [सं० आश्रय या फा० असीर (कैदी) ?] किला। दुर्ग (डिं०)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आसेवन  : पुं० [सं० आ√सेव्+ल्युट्] [भू० कृ० आसेवित, वि० आसेव्य, कर्त्ता आसेवी] १. अच्छी या पूरी तरह से किया जानेवाला सेवन। २. दे० ‘आसेवा’।
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आसेवा  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] अच्छी तरह की जानेवाली सेवा।
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आसोज  : पुं० [सं० अश्वयुज्] =आश्विन (महीना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आसौ  : अव्य० [सं० अस्मिन्,प्रा०अस्मि-इस+सम-वर्ष] इस वर्ष। इस साल। पुं०=आसव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आस्तर  : पुं० [सं० आ√स्तृ+अप्] १. आवरण। २. बिछाने की कोई चीज। जैसे—चटाई चादर, गलीचा आदि। ३. हाथी की झूल।
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आस्तरण  : पुं० [सं० आ√स्तृ+ल्युट्] १. बिछाने, ढकने या फैलाने की क्रिया या भाव। २. वह जो बिछाया जाए अथवा किसी के ऊपर डाला जाए। जैसे—चादर या झूल। ३. यज्ञ में वेदी पर फैलाये हुए कुश।
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आस्तार-पंक्ति  : पुं० [सं० ] ४0 वर्णों का वैदिक छंद जिसके प्रथम और चतुर्थ चरणों में १२-१२ और द्वितीय तथा तृतीय चरणों में ८-८ वर्ण होते हैं।
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आस्ति  : स्त्री० =आस्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आस्तिक  : पुं० [सं० अस्ति+ठक्-इक] [भाव० आस्तिकता] १. वह जिसका विश्वास ईश्वर, परलोक पुनर्जन्म आदि में हो। २. वह जिसका विश्वास पुरानी प्रथाओं, रीतियों आदि में हो।
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आस्तिकता  : स्त्री० [सं० आस्तिक+तल्-टाप्] आस्तिक होने की अवस्था या भाव। ईश्वर, परलोक पुनर्जन्म आदि में विश्वास होना। (थीइज्म)
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आस्तिकपन  : पुं० =आस्तिकता।
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आस्तिक्य  : पुं० [सं० आस्तिक+ष्यञ्]=आस्तिकता।
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आस्तीक  : पुं० [सं० ] एक ऋषि जिन्होंने जनमेजय के नागयज्ञ में तक्षक के प्राण बचाये थे।
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आस्तीन  : स्त्री० [फा०] शरीर के मध्यभाग में पहने जानेवाला वस्त्र का कंधे से कलाई तक का भाग। बाँह। पद—आस्तीन का साँप=वह व्यक्ति जो मित्र होकर धोखा दे। मुहावरा—आस्तीन चढ़ाना=(क) कोई काम करने के लिए तैयार होना। (ख) लड़ने के लिए उतारू होना। आस्तीन में साँप पालना=ऐसे व्यक्ति को अपने साथ रखना जो आगे चलकर बहुत बड़ा शत्रु सिद्ध हो।
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आस्ते  : अव्य० [सं० आहिस्तः] धीरे। पद—आस्ते-आस्ते-धीरे-धीरे।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आस्त्र  : वि० [सं० अस्त्र+अण्] अस्त्र-संबंधी। अस्त्रों का।
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आस्थगन  : पुं० [सं० आ√स्थग् (संवरण)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० आस्थगित] किसी काम या बात को किसी दूसरे समय के लिए रोक रखने की क्रिया या भाव। (डेफरमेंट)
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आस्था  : स्त्री० [सं० आ√स्था+अङ्] १. कहीं स्थिति होने की अवस्था, साधन या स्थान। २. किसी महान या पूज्य व्यक्ति या देवता में होनेवाली विश्वासपूर्ण भावना। ३. सभा का अधिवेशन। बैठक। ४. अवलंब। सहारा। ५. प्रयत्न। ६. वचन। वादा।
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आस्थाता (तृ)  : पुं० [सं० आ√स्था+तृच्] १. वह जो अच्छी तरह से या दृढ़तापूर्वक खड़ा हो। २. वह जो ऊपर चढ़ता हो या चढ़ा हो। आरोही।
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आस्थान  : पुं० [सं० आ√स्था+ल्युट्]१. स्थान। जगह। २. बैठने का स्थान। बैठक। ३. दरबार। सभा। ४. दे० ‘आस्थान मंडप’।
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आस्थान-मंडप  : पुं० [ष० त०] १. प्राचीन भारत में, राजकुमार का वह भवन जिसमें राजा के सामने लोग उपस्थित होकर निवेदन करते थे। दरबार आम। २. दे० ‘आस्थानिका’।
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आस्थानिका  : स्त्री० [सं० ] बैठने का कोई विशेष स्थान। (सीट)
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आस्थानी  : स्त्री० [सं० आ√स्था+ल्युट्-अन-ङीष्] १. किसी भवन का वह अंश या भाग जिसमें लोग कोई महत्त्व की बात सुनने के लिए एकत्र हों। (आँडिटोरियम)।२. दे० ‘आस्थान मंडप’।
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आस्थापन  : पुं० [सं० आ√स्था+णिच्+पुक्+ल्युट्-अन] १. अच्छी तरह से कोई चीज बैठाने, रखने या स्थापित करने की क्रिया या भाव। २. वैद्यक में स्नेह-वस्ति। ३. पौष्टिक औषध। ताकत की दवा।
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आस्थित  : भू० कृ० [सं० आ√स्था+क्त] १. जो किसी स्थान में रहता हो। २. ठहरा या टिका हुआ। ३. प्राप्त किया हुआ। ४. घेरा हुआ।
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आस्थिति  : स्त्री० [सं० आ√स्था+क्तिन्] १. स्थिति होने की अवस्था या भाव। २. स्थित होने या रहने का स्थान। निवास।
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आस्पद  : पुं० [सं० आ√पद+घ,सुट्] १. जगह। स्थान। २. रहने की जगह। आवास। ३. आधान, आधार या पात्र। ४. वर्ण व्यवस्था आदि की दृष्टि से सामाजिक स्थिति जो किसी के पद, मर्यादा आदि का सूचक होती है। ५. वंश गत नाम। अल्ल। ६. जन्म कुंडली में लग्न से दसवाँ स्थान।
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आस्पर्धा  : स्त्री० [सं० आ√स्पर्ध्+अ+टाप्]=स्पर्धा।
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आस्पर्धी (र्धिन्)  : पुं० [सं० आ√स्पर्ध+णिनि] स्पर्धा करनेवाला।
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आस्फालन  : पुं० [सं० आ√स्फल्+णिच्+ल्युट्] १. किसी को पीछे हटाने के लिए ढकेलना, दबाना या मारना। २. संघर्ष। ३. आत्मश्लाघा। डींग। ४. उछल-कूद।
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आस्फोट  : पुं० [सं० आ√स्फुट्+णिच्+अच्] १. शस्त्रों की खड़खड़ाहट या झंकार। २. ताल ठोंकने का शब्द। ३. अखरोट। ४. मदार का पौधा।
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आस्फोटन  : पुं० [सं० आ√स्फुट्+णिच्+ल्युट-अन] १. प्रकट या व्यक्त करना। २. गात्र, पद आदि फड़फाड़ाना। ३. ताल ठोंकना। ४. अनाज या फसल ओसाना। बरसाना।
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आस्मान  : पुं० =आसमान।
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आस्मानी  : वि० पुं० स्त्री० =आसमानी।
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आस्मारक  : पुं० =स्मारक।
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आस्य  : पुं० [सं० √अस्+ण्यत्] १. चेहरा। मुख। २. मुँह। ३. मुँह का वह अंश जिससे शब्दों का उच्चारण होता है। वि० मुँह या मुख संबंधी।
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आस्यंदन  : पुं० [सं० आ√स्यंद+ल्युट-अन] १. प्रवाहित होना। बहना। २. क्षरण। रसना।
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आस्र  : पुं० [सं० अस्र+अण्] खून। रक्त।
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आस्रप  : वि० [सं० आस्र√पा+क] रक्त पीनेवाला। पुं० १. राक्षस। २. मूल नक्षत्र।
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आस्रव  : पुं० [सं० आ√स्रु+अप्] १. पकते हुए चावल की झाग या फेन। २. पनाला। उदाहरण—आस्रव इंद्रिय द्वार कहावै। जीवहिं विशयन ओर बहावै। ३. कष्ट। क्लेश। ४. मन के दोष, मल या विकार। (बौद्ध)। ५. आत्मा की शुभ और अशुभ गतियाँ। (जैन)।
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आस्राव  : वि० [आ√स्रु+घञ्] बहता हुआ। पुं० १. बहाव। २. थूक। ३. ऐसा घाव या फोड़ा जिसमें कुछ बहता हो।
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आस्वांत  : वि० [सं० आ√स्वन्+क्त] ध्वनि या शब्द करता हुआ।
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आस्वाद  : पुं० [सं० आ√स्वद्+घ़ञ्] कोई चीज खाने या पीने के समय मिलनेवाला उसका रस या जीभ को होनेवाली उसकी अनूभूति। स्वाद।
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आस्वादन  : पुं० [सं० आ√स्वद्+णिच्+ल्युट्] [वि० आस्वादनीय, आस्वाद्य, भू० कृ० आस्वादित] १. कोई चीज खा या चख कर यह देखना कि उसका स्वाद कैसा है। २. लाक्षणिक रूप में प्रयोग के द्वारा यह जानना या समझना कि किसी चीज या बात में कैसा रस होता है।
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आस्वादनीय  : वि० [सं० आ√स्वद्+णिच्+अनीयर] जिसका आस्वादन किया जा सके या किया जाने को हो।
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आस्वादित  : भू० कृ० [सं० आ√स्वद्+णिच्+क्त] जिसका आस्वादन किया गया हो। चखकर देखा हुआ।
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