शब्द का अर्थ
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असु :
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पुं० [सं०√अस् (फेंकना)+उन्] [वि० भाव० आसव] १. प्राणवायु। २. प्राण। ३. उतना समय जितना एक बार साँस लेने में लगता हो। ४. एक पल का छठा भाग। ५. हृदय। ६. मन में उठनेवाला विचार। ७. जल। पानी। ८. गरमी। ताप। पुं० [सं० अश्व] घोड़ा। उदाहरण—असु दल जग-दल दूनौ साजै। औ घन तबल जुझाऊ बाजे।—जायसी। क्रि० वि० [सं० आशु] जल्दी। शीघ्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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असु-विलास :
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पुं० [ब० स०] एक प्रकार का छंद या वृत्त। |
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असुख :
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पुं० [सं० न० त०] १. सुख का अभाव। २. कष्ट। दुःख। वि० [सं० न० ब०] १. कष्ट या दुःख उत्पन्न करनेवाला। २. परिश्रम-साध्य। कठिन। |
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असुग :
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वि० =आशुग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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असुचि :
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वि० =अशुचि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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असुत्त :
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वि० [सं० असुप्त] जो सोया न हो। स्त्री० [सं० शुक्ति] सीपी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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असुंदर :
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वि० [सं० न० त०] १. जो सुंदर न हो। कुरूप या भद्दा। २. जो उपयुक्त या ठीक जान न पडता हो। अशोभन। |
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असुन :
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पुं० [सं० असु] अंतःकरण। हृदय। उदाहरण—असुन तरवत अड़ि आसना पिड झरोखे नूर।—कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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असुनी :
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स्त्री० =अश्विनी (नक्षत्र)। |
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असुपति :
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पुं० =अश्वपति। |
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असुभ :
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वि० =अशुभ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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असुभृत् :
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पुं० [असु√भू (धारण)+क्विप्] जीवधारी। प्राणी। |
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असुमान (मत्) :
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पुं० [सं० असु+मतुप्] जीवधारी। प्राणी। |
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असुमेघ :
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पुं० =अश्वमेघ। |
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असुर :
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पुं० [सं०√अस् (दीप्ति)+उर] १. वैदिक काल में वह जो सुर या देवता न हो, बल्कि उनसे भिन्न और उनका विरोधी हो। २. प्राचीन पौराणिक कथाओं के अनुसार दैत्य या राक्षस। ३. इतिहास और पुरातत्त्व से आधुनिक असीरिया देश के उन प्राचीन निवासियों की संज्ञा जिन्हें उन दिनों ‘असर’ कहते थे और जिनके देश का नाम पहले असुरिय आधुनिक असीरिया था। ४. नीच वृत्तिवाला और असंस्कृत पुरुष। ५. एक प्रकार का उन्माद जिसमें रोगी, गुरु देवता ब्राह्मण आदि की निंदा करता और उन्हें भला-बुरा कहने लगता है। ६. राहु। ७. रात्रि। रात। ८. बादल। मेघ। ९. पृथ्वी। १. सूर्य। ११. समुद्री नमक। १२. देवदार नामक वृक्ष। वि० १. अपार्थिव। अलौकिक। २. जीवित। ३. ब्रह्म और वरुण का एक विशेषण। |
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असुर-कुमार :
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पुं० [ष० त०] जैनशास्त्रानुसार एक त्रिभुवनपति देवता। |
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असुर-गुरु :
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पुं० [ष० त०] शुक्राचार्य। |
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असुर-राज :
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पुं० [ष० त०] राजा बलि। |
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असुर-रिपु :
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पुं० [ष० त०] विष्णु। |
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असुर-विद्या :
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स्त्री० [ष० त०] वह विद्या या शास्त्र जिसमें भिन्न-भिन्न देशों की अनुश्रुतियों के आधार पर असुरों या राक्षसों और उनके कार्यों आदि का अध्ययन या विवेचन होता है। (डेमनालोजी) |
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असुर-सूदन :
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पुं० [ष० त०] विष्णु। |
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असुरा :
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स्त्री० [सं० असुर+टाप्] १. रात्रि। २. राशि। ३. वेश्या। |
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असुराई :
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स्त्री० [सं० असुर] १. असुरों का सा क्रूर आचरण व्यवहार या स्वभाव। २. परले सिरे की दुष्टता और राक्षसी निदर्यता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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असुराचार्य :
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पुं० [सं० असुर-आचार्य, ष० त०] १. शुक्राचार्य। २. शुक्र ग्रह। |
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असुराधिप :
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पुं० [सं० असुर-अधिप, ष० त०] राजा बलि। |
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असुरारि :
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पुं० [सं० असुर-अरि, ष० त०] १. विष्णु। २. देवता। |
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असुरी :
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स्त्री० [सं० असुर+ङीष्] १. राक्षसी। २. राई। |
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असुविधा :
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स्त्री० [सं० न० त०] १. सुविधा या सुभीता न होना। सुविधा का अभाव। २. किसी काम में होनेवाली अड़चन या बाधा। कठिनाई। दिक्कत। |
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असुस्थ :
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वि० [सं० सु√स्था (ठहरना)+क, न० त०]=अस्वस्थ। |
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असुहाता :
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वि० स्त्री० [अ=नहीं,+सुहाना] [स्त्री० असुहाती] न सुहाने या अच्छा न लगनेवाला अर्थात् अप्रिय, कटु या बुरा। |
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