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शब्द का अर्थ

आव  : प्रत्यय [हिं० आई(प्रत्यय)या सं० भाव] एक हिंदी प्रत्यय जो क्रियाओं की धातुओं में लगकर उनमें स्थिति भाव आदि के अर्थ सूचित करता है। जैसे—चढ़ना से चढ़ाव, बढ़ना से बढ़ाव आदि। स्त्री० [सं० आयु] आयु। उदाहरण—तुच्छ आव कवि चंद की, सिर चहु आना भार।—चंदबरादाई।
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आव-भगत  : स्त्री० [हिं० आवना-आना+सं० भक्ति] किसी के आने पर किया जानेवाला उसका आदर-सत्कार। खातिर-तवाजा।
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आवगीर  : पुं० [फा०] १. जुलाहों की कूची जिससे वे तारी पर पानी छिड़कते है। २. पानी का गड्ढा या तालाब।
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आवज  : पुं० [सं० आवाद्य, पा० आवज्ज] ताशे की तरह का एक पुराना बाजा।
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आवझ  : पुं० =आवज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आवट  : प्रत्यय [सं० आवृति] एक स्त्री प्रत्यय जो कुछ धातुओं में उनके भाव वाचक रूप बनाने के लिए लगाया जाता है। जैसे—बनाना से बनावट, मिलना से मिलावट।
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आवटना  : स० [सं० आवर्त्त, पा० आवट्ट] १. उलटना-पलटना। २. उथल-पुथल मचाना। ३. ऊहापोह या संकल्प विकल्प करना। अ० स०-औटना या औटाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आवंतिक  : वि० [सं० अवंति+ठक्-इक] अवंती (नगरी) से संबंध रखनेवाला। अवंती का। पुं० अवंति का निवासी।
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आवंत्य  : वि० [सं० अवंति+ञ्य]-आवंतिक। पुं० अवंति का निवासी।
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आवध  : पुं० -आयुध। उदाहरण—चिति ईस चहुआन, चढ़यौ हय सज्जि सु आवध।-चंदवरदाई।
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आवधिक  : वि० [सं० अवधि+ठञ्-इक] १. किसी अवधि या सीमा से संबंध रखनेवाला। २. किसी नियत अवधि में होनेवाला।
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आवन  : पुं० [सं० आगमन, पुं० हिं० आगवन] आगमन। आना। स्त्री० =अवनि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आवनि-जावानी  : स्त्री० =आनी-जानी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आवनेय  : वि० [सं० अवनी+ढक्-एय] १. अवनि संबंधी। २. अवनि से उत्पन्न होनेवाला। पुं० मंगल ग्रह जो अवनि (अर्थात् इस पृथ्वी) का पुत्र कहा गया है।
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आवभाव  : पुं० =आव-भगत।
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आवरक  : वि० [सं० आ√वृ(वरण करना,छिपाना)+अप्+कन्] आवरण खड़ा करने या ढकनेवाला। पुं० आवरण। परदा।
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आवरण  : पुं० [सं० आ√वृ+ल्युट-अन] १. कोई चीज आड़ में करने या छिपाने के लिए उसके ऊपर रखी या सामने खड़ी की जानेवाली कोई दूसरी चीज। परदा। २. ढकना। ढक्कन। ३. वह कपड़ा जिसमें कोई चीज लपेटी जाए। बेठन। ४. घेरा। ५. आघात या वार रोकने वाली कोई चीज। जैसे—ढाल।
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आवरण-पत्र  : पुं० [ष० त०] =आवरण-पृष्ठ।
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आवरण-पृष्ठ  : पुं० [ष० त०] पुस्तक के ऊपर जिल्द के कागज जो उसकी रक्षा के लिए लगा रहता है तथा जिसपर उस ग्रंथ तथा उसके ग्रंथकार,प्रकाशक आदि के नाम छपें रहते हैं। (कवर)
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आवरना  : स० [सं० आवरण] १. आवरण से युक्त या आवृत्त करना। ढकना। २. घेरना। ३. छिपाना। अ० १. आवृत्त होना। घिनरा। २. ओट या परदे में होना। छिपना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आवरा  : वि० [सं० अवर] [स्त्री० आवरी] १. विमुख। २. विपरीत। ३. मलिन। मैला। ४. विकल। व्याकुल। उदाहरण—घन आनंद कौन अनोखी दसा मति आवरी बावरी ह्वै थरसै।—घनानंद। पुं० [सं० आवरण] ओढने की चादर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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आवरित  : भू० कृ०=आवृत्त।
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आवरी  : स्त्री० [सं० अवर ?] व्याकुलता।
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आवर्जक  : वि० [सं० आ√वृज् (वरण)+ण्वुल्-अक] आवर्जन करनेवाला।
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आवर्जन  : पुं० [सं० आ√वृज्+ल्युट्-अन] १. अपनी ओर आकृष्ट करना, खींचना या लाना। २. अपने अधिकार या वश में करना। ३. पराजय। हार।
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आवर्जना  : स्त्री० [सं० आ√वृज्+णिच्+युच्-अन-टाप्] १. आवर्जन। २. पराजय। हार। उदाहरण—बन आवर्जना मूर्ति दीना, अपनी अतृप्ति-सी संचित हो।—प्रसाद।
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आवर्जित  : भू० कृ० [सं० आ√वृज्+णिच्+क्त] १. किसी ओर खिंचा हुआ। आकृष्ट। २. किसी के अधिकार या वश में आया हुआ। ३. हारा हुआ। पराजित।
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आवर्त  : पुं० [सं० आ√वृत् (रहना+घञ्] १. किसी ओर घूमना या मुड़ना। २. चारों ओर घूमना। चक्कर काटना या लगाना। जैसे—आकाशस्थ पिडों का आवर्त्त काल या आवर्त्त गति। ३. पानी, रोमावली आदि का चक्कर। भँवर। भौरी। ४. किसी चिंता या विचार का रह-रह कर मन में आना। ५. यह जंगत या संसार जिसमें जीवों को बार-बार और रह-रहकर आना पड़ता है। ६. घनी आबादी या बस्ती। ७. ऐसा बादल या मेघ जिससे अधिक पानी बरसे। ८. उक्त आधार पर मेघों के एक राजा का नाम। ९. लाजवर्द नामक रत्न। १. सोना-माखी।
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आवर्त-बिंदु  : पुं० [सं० ष०त०] वह बिंदु या स्थान जहाँसे किसी वस्तु की गति किसी ओर घूमती या मुड़ती हो। इधर-उधर मुड़ने या पीछे लौटने की जगह या बिंदु। (टर्निग प्वाइंट)।
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आवर्तक  : वि० [सं० आ√वृत्+ण्वुल्-अक] १. चक्कर खाने या घूमनेवाला। २. जो बार-बार रह-रहकर किसी निश्चित या अनिश्चित समय पर सामने आता या होता है। समय-समय पर जिसकी आवृत्ति होती रहती हो। (रेकरिंग) जैसे—आवर्त्तक अनुदान (सहायता के रूप में दिया जानेवाला या मिलनेवाला धन)। पुं० [आवर्त्त+कन्] =आवर्त्त।
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आवर्तक-ज्वर  : पुं० [सं० कर्म० स०] किलनी, जूँ आदि के काटने से होनेवाला एक प्रकार का विकट ज्वर जिसमें एक सप्ताह तक निरंतर ज्वर रहने के बाद उतर जाता और तब फिर आने लगता है। (रिलैप्सिंग फीवर)
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आवर्तन  : पुं० [सं० आ√वृत्+ल्युट-अन] [वि० आवर्तनीय, आवर्तित] १. किसी की ओर या उसके चारों घूमना। २. चक्कर खाना। ३. मंथन। विलोड़न। ४. धातु आदि गलाना। ५. तीसरे पहर का समय जब छाया पश्चिम से पूर्व की ओर मुड़ती है। ६. किसी बात का बार-बार होना।(रिपीटीशन) ७. रोगी के कुछ अच्छे होने पर उसे फिर से वही रोग होना। (रिलैप्स)।
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आवर्तनीय  : वि० [सं० आ√वृत्+णिच्+अनीयर] जिसका आवर्तन होता हो या हो सकता हो।
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आवर्तित  : भू० कृ० [सं० आ√वृत्त+णिच्+क्त] १. आवर्तन के रूप में आया हुआ। २. घूमा या मुड़ा हुआ।
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आवर्ती (र्तिन्)  : पुं० [सं० आ√वृत्त+णिनि] १. वह जो चारों ओर घूमता या चक्कर खाता हो। २. वह घोड़ा जिसके शरीर पर भौरियाँ हों।
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आवर्धन  : पुं० [सं० आ√वृध्(बढ़ना)+णिच्+ल्युट्-अन] किसी पदार्थ का आकार, मान, शक्ति आदि बढ़ाने की क्रिया या भाव। (आँग्मेन्टेशन)
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आवलि  : स्त्री० [सं० आ√वल्(संचारित होना)+इन्] पंक्ति। कतार। श्रेणी।
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आवलित  : भू० कृ० [सं० आ√वल्(संचारित होना)+इन्] हल खाया या मुड़ा हुआ।
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आवली  : भू० कृ० [सं० आवलि+ङीष्] पंक्ति। कतार। स्त्री० [?] एक प्रकार का कूत जिसमें बिस्वें की उपज का अंदाजा लगाया जाता है।
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आवश्य  : पुं० [सं० अवश्य+अण्] =आवश्यकता।
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आवश्यक  : वि० [सं० अवश्य+वुञ्-अक] १. जिसे बिना काम न चल सकता हो। जरूरी। जैसे—प्राणी मात्र के लिए भोजन आवश्यक है। २. जिसके बिना साधारणयतः काम न चलता हो। प्रयोजनीय। जैसे—विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए सुयोग्य गुरु का होना आवश्यक है। ३. जिसके संबंध में तुरन्त और निश्चित रूप से कोई कारवाई होती हो या होने को हो। जरूरी। जैसे—सरकार के लिए इस विषय में कुछ निर्णय करना आवश्यक हो गया हो। (नेसेसरी उक्त सभी अर्थों में)
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आवश्यकता  : स्त्री० [सं० आवश्यक+तल्-टाप्] १. आवश्यक होने की अवस्था या भाव। २. ऐसी स्थिति जिसमें विवश होकर कुछ करना पड़े अथवा किसी चीज या बात के बिना काम चल ही न सकता हो। जरूरत। (नेसेसिटी)
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आवश्यकीय  : वि० [सं० अवश्य+छण्-ईय,कुक्] जिसकी आवश्यकता पड़े। जिसके बिना प्रयोजन सिद्ध न हो। आवश्यक।
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आवस  : स्त्री० दे० ‘ओस’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आवसति  : स्त्री० [सं० प्रा०स०] १. रात के समय विश्राम करने का स्थान। बसेरा। २. रात्रि। रात।
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आवसथ  : पुं० [सं० आ√बस्(बसना)+अथच्] १. रहने क जगह। निवास स्थान। २. आबादी। बस्ती।
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आवसथ्य  : वि० [सं० अवसथ+ञ्य] घर का। गृह-संबंधी। स्त्री० भोजन पकाने आदि के काम आनेवाली अग्नि जो पंचाग्नियों में से एक है। लौकिकाग्नि।
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आवसानिक  : वि० [सं० अवसान+ठक्-इक] १. अवसान से संबंध रखने या अंत में होनेवाला। २. जो किसी रेखा, विस्तार आदि के अंत में पड़कर उसकी समाप्ति सूचित करता हो। (टर्मिनल)
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आवसानिक-कर  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह कर जो किसी यात्रा की समाप्ति के स्थान पर वहां पहुँचनेवालों से लिया जाता है। (टर्मिनल टैक्स)
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आवस्थिक  : वि० [सं० अवस्था+ठञ्-इक] किसी अवस्था या स्थिति के अनुकूल या अनुरूप।
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आवह  : वि० [सं० आ√वह (डोना बहना)+अच्] १. वहन करने या लानेवाला। २. उत्पन्न या आविर्भाव करनेवाला। जैसे—भयावह। पुं० भारतीय ज्योतिष में पृथ्वी से बारह योजन ऊपर बहनेवाली वह हवा या वायु जिसमें बिजली चमकती है और जिसमें से ओले गिरते हैं।
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आवहन  : पुं० [सं० आ√वह+ल्युट्-अन] (उठा या ढोकर अथवा और किसी प्रकार) निकट या पास लाना।
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आवाँ  : पुं० =आँवाँ।
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आवा-जानी  : स्त्री० =आवागमन।
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आवागमन  : पुं० [सं० अव-आ√गम्(जाना)+ल्युट्-अन, अवागमन+अण्] १. आना और जाना। २. बार-बार इस संसार में आने (जन्म लेने) और जाने (मरने) का चक्र। मुहावरा—आवागमन छूटना=जीवन और मरण के बंधन से मुक्त होना।
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आवागवन  : पुं=आवागमन।
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आवागौन  : पुं० =आवागमन।
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आवाज  : स्त्री० [फा० आवाज, मिलाओ, सं० आवध, पा० आवज्ज] १. आघात आदि से होनेवाला शब्द। २. प्राणियों के कंठ से शब्दों, पदों आदि के रूप में निकलनेवाली ध्वनि। शब्द। मुहावरा—आवाज उठाना=किसी के संबंध में जोर देकर कुछ कहना। आवाज खुलना=(क) मुँह से बात निकलना। (ख) बैठी हुई आवाज का फिर से साफ होना। आवाज बैठना=कफ आदि के कारण कंठ से पूरा और स्पष्ट उच्चारण न होना। आवाज भर्राना=भय आदि के कारण गले में से आवाज का निकलते समय भारी हो जाना। आवाज मारी जाना=आवाज का सुरीला न रह जाना। ३. किसी को बुलाने के लिए जोर से उच्चारित किया जानेवाला शब्द। मुहावरा—आवाज देना या लगाना=बहुत जोर से किसी का नाम लेकर उसे पुकारना। ४. फकीरों या सौदा बेचनेवालों की कुछ जोर से लगनेवाली पुकार।
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आवाजा  : पुं० [फा० आवाजः] जोर से कही जानेवाली वह व्यंग्यपूर्ण बात जो परोक्ष रूप से किसी को सुनाने के लिए कही जाए। मुहावरा—आवाजा कसना या छोड़ना=व्यग्यपूर्ण बात कहना।
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आवाजा-कशी  : स्त्री० [अ०+फा०] परोक्ष रूप से किसी को सुनाने के लिए जोर से कोई व्यंग्यपूर्ण बात कहना।
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आवाजाही  : स्त्री० [हिं० आना+जाना] बार-बार किसी जगह आना और वहाँ से चले जाना। जैसे—यहाँ तो दिन भर आवाजाही लगी रहती है।
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आवाप  : पुं० [सं० आ√वप्(बोना)+घञ्] १. चारों ओर छितराना या बिखेरना। २. बीज बोना। ३. वृक्ष का थाला। थावल। ४. हाथ में पहनने का कंकण। कंगन।
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आवापन  : पुं० [सं० आ√वप्+णिच्+ल्युट्-अन] १. छितारने बिखेरने होने आदि की क्रिया। २. करघा।
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आवाय  : पुं० [सं० आ√वे (बुनना)+घञ्] सेना का वह अंश जो व्यूह रचना के बाद बच रहा हो।
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आवार  : पुं० [सं० आ√वृ (रोकना)+अण्] १. रक्षा। बचाव। २. रक्षा का स्थान। शरण।
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आवारगी  : स्त्री० [फा०] आवारा होने की अवस्था या भाव।
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आवारजा  : पुं० [फा०] जमा-खर्च लिखने की बही। अवारजा।
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आवारा  : वि० [फा०] १. (व्यक्ति) जो इधर-उधर बिना मतलब घूमता-फिरता हो तथा जिसका जीवन अनिश्चित और आचरण अवांछनीय हो। २. जिसके रहने आदि का कोई ठौर-ठिकाना न हो। ३. दुष्ट, पाजी या लुच्चा।
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आवारागर्द  : वि० [फा०] [भाव० आवारगर्दी] व्यर्थ इधर-उधर घूमनेवाला।
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आवाल  : पुं० [सं० आ√वल् (छिपाना)+णिच्+अच्] वृक्ष का थाला।
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आवास  : पुं० [सं० आ√वस् (बसना)+घञ्, गुज० अवास, सिंह० अहस्० अवा, मरा० आवसा] [वि० आवासिक] १. निवास स्थान। रहने की जगह। (एबोड) २. कहीं ठहरने या रहने का अस्थायी स्थान।
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आवासन  : पुं० [सं० आवास+क्विप्+ल्युट्-अन] [भू०कृ०आवासित] किसी दूसरे देश मे जाकर स्थायी रूप से बसने की अवस्था क्रिया या भाव। (इमिग्रेशन)
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आवासिक  : वि० [सं० आवास+ठक्-इक] १. अस्थायी रूप से किसी स्थान पर रहने या बसनेवाला। २. निवासी।
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आवाह  : पुं० [सं० आ√वह्(वहन करना)+घञ्] १. आमंत्रण। २. विवाह।
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आवाहक  : वि० [सं० आ√वह+णिच्+ण्वुल्-अन] आवाहन करने (पुकारने या बुलाने) वाला।
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आवाहन  : पुं० [सं० आ√वह+णिच्+ल्युट्-अन] १. किसी को अपने पास बुलाने की क्रिया या भाव। २. पूजन के समय मंत्र द्वारा किसी देवता को अपने निकट बुलाने का कार्य।
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आवाहना  : स० [सं० आवाहन] आवाहन करना। बुलाना। उदाहरण—सुय सुखमा सुख लहन काज औरनि आवाहन।—रत्नाकर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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आविक  : वि० [सं० अवि+ठक्-इक] १. भेड़ संबंधी। २. ऊनी। पुं० ऊनी वस्त्र।
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आविर्भाव  : पुं० [सं० आविस√भू (होना)+घ़ञ्] [भू० कृ० आविर्भूत] १. अस्तित्व में आकर प्रकट या प्रत्यक्ष होना। उत्पन्न होकर सामने आना या उपस्थित होना। जैसे—संसार में अवतार का या मन में विचार का आविर्भाव होना। २. प्रकट होना।
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आविर्भूत  : भू० कृ० [सं० आविस√भू+क्त] [स्त्री० आविर्भाव] १. जिसका आविर्भाव हुआ हो। उत्पन्न। २. सामने आया हुआ। उपस्थित।
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आविर्हित  : भू० कृ० [सं० आविस√धा (धारण करना)+क्त] १. प्रत्यक्ष किया हुआ। २. सामने आया हुआ।
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आविल  : वि० [सं० आ√विल् (फैलाना)+क] गँदला। मलिन। उदाहरण—दुख से आविल सुख से पंकिल।—महादेवी।
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आविष्करण  : पुं० [सं० आविस√कृ(करना)+ल्युट्-अन] आविष्कार करना।
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आविष्कर्त्ता  : पुं० [सं० आविस√कृ+तृच्] वह जो अविष्कार करे। (इन्वेंटर)
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आविष्कार  : पुं० [सं० आविस√कृ+अण्] [वि० आविष्कारक,आविष्कर्त्ता,आविष्कृत] १. प्राकट्य। प्रकाश। २. ऐसी नई चीज बनाना या नई बात निकलना जिसका ढंग या प्रकार पहले किसी को मालूम न रहा हो। नई तरह की चीज पहले पहल निकालना। (इन्वेंशन) जैसे—भाप के इंजन या बिजली के पंखे का आविष्कार।
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आविष्कारक  : वि० [सं० आविस√कृ+ण्वुल्-अक] आविष्कार करने वाला। आविष्कर्त्ता। (इन्वेंटर)
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आविष्कृत  : भू० कृ० [सं० आविस√कृ+क्त] जिसका आविष्करण या आविष्कार हुआ हो।
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आविष्ट  : भू० कृ० [सं० आ√विष्(फैलना)+क्त] १. किसी प्रकार के आवेश या संचार आदि से युक्त। जैसे—क्रोध या भूत के उपद्रव से आविष्ट। २. किसी उद्योग या काम में लगा हुआ। लीन। ३. ढका हुआ। आच्छादित।
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आवृत  : भू० कृ० [सं० आ√वृ(आच्छादन करना)+क्त] [स्त्री० आवृत्ता] १. ढका हुआ। आच्छादित। २. घिरा या घेरा हुआ।
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आवृत्ति  : स्त्री० [सं० आ√वृत् (बरतना)+क्तिन्] १. बार-बार होने की क्रिया या भाव। २. पुस्तक आदि का हर बार छपना। संस्करण। (एडिशन)
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आवृत्ति-दीपक  : पुं० [तृ० त०] दीपक अंलकार का एक भेद।
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आवृत्तिवाद  : पुं० [ष० त०] आधुनिक समाज शास्त्र का यह मत या सिद्धांत कि कला दर्शन साहित्य आदि के क्षेत्रों में प्रतिभाशाली पुरुषों की कुछ विशिष्ट अवसरों पर अथवा कालक्रम से रह-रह कर आवृत्ति या आगमन होता रहता है।
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आवेग  : पुं० [सं० आ√विज् (विचलित होना)+घञ्] १. मानसिक उत्तेजना या चित्त के क्षोभ के फलस्वरूप होनेवाली आकुलता या उत्कट भावना। जोश। २. सहसा मन में उत्पन्न होनेवाला वह विकार जो मनुष्य को बिना सोचे-समझे कुछ कर डालने में प्रवृत्त करता है। (इम्पल्स) ३. साहित्य में मन की वह चंचल स्थिति जो अकस्मात् इष्ट या अनिष्ट व्यक्ति अथवा घटना के सामने आकर उपस्थित होती है और जिसकी गिनती संचारी भावों में की गई है।
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आवेदक  : वि० [सं० आ√विद्(जानना)+णिच्+ण्वुल्-अक] आवेदन या प्रार्थना करनेवाला।
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आवेदन  : पुं० [सं० आ√विद्+णिच्+ल्युट्-अन] [कर्त्ता आवेदन, आवेदी, वि, आवेदनीय, आवेद्य, भू० कृ० आवेदित] १. नम्रतापूर्वक किसी को कोई सूचना देना या कोई बात बतलाना। २. निवेदन। प्रार्थना।
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आवेदन-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी बड़े की सेवा में भेजा जानेवाला वह पत्र जिसमें अपनी कोई बात या प्रार्थना लिखकर सूचित की गई हो। २. प्रार्थना-पत्र। अरजी। (एप्लिकेशन)
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आवेदनीय  : वि० [सं० आ√विद्+णिच्+अनीयर] (बात या सूचना) जो आवेदन के रूप में उपस्थित की जाने को हो अथवा जिससे किसी को परिचित कराना आवश्यक हो।
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आवेदित  : भू० कृ० [सं० आ√विद्+णिच्+क्त] जो आवेदन के रूप में किसी के सामने उपस्थित किया गया हो।
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आवेदी (दिन्)  : पुं० [सं० आ√विद्+णिच्+णिनि] वह जो आवेदन करे।
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आवेद्य  : वि० [सं० आ√विश्+णिच्+यत्]=आवेदनीय।
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आवेश  : पुं० [सं० आ√विश्(घुसना)+घञ्] [भू०कृ०आविष्ट] १. पैठ। प्रवेश। २. व्याप्ति। संचार। ३. मन में कोई उग्र मनोविकार उत्पन्न होने पर उसके फलस्वरूप होनेवाली वह स्थिति जिसमें मनुष्य बिना आगा-पीछा सोचे कुछ कर या कह चलता है। जोश। झोंक। ४. भूत-प्रेत आदि की बाधा जिसमें मनुष्य सुध-बुध भूलकर अंड-बंड बातें बकने और उसके-सीधे काम करने लगता है। ५. मिरगी नामक रोग।
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आवेशन  : पुं० [सं० आ√विश्+ल्युट्-अन] १. प्रविष्ट होना। घुसना या पैठना। २. आवेश में होना। ३. पकड़ना। ४. बैठने या रहने का स्थान। ५. सूर्य या चंद्रमा का परिवेश या मंडल। ६. शिल्पशाला।
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आवेशिक  : वि० [सं० आवेश+ठञ्-इक] १. आवेश संबंधी। २. अंदर छिपा या दबा हुआ। ३. असाधारण। पुं० १. अतिथि। अभ्यागत। २. आतिथ्य।
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आवेष्टक  : वि० [सं० आ√वेष्ट्(घेरना)+णिच्+ण्वुल्-अक] चारों ओर से घेरने वाला। पुं० १. घेरा। २. चार-दीवारी। परकोटा। ३. चिडियाँ मछलियाँ आदि फँसाने का जाल।
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आवेष्टन  : वि० [सं० आ√वेष्ट्र+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृआवेष्टित] १. चारों ओर से घेरने की क्रिया या भाव। २. चारों ओर से छिपाने, ढकने या लपेटने वाली वस्तु।
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आवेष्टित  : भू० कृ० [सं० आ√वेष्ट+णिच्+क्त] जिसका आवेष्टन हुआ हो। चारों ओर से घिरा या ढका हुआ।
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आवेस्ता  : स्त्री०-अवेस्ता (भाषा)।
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